श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र मन्दिर संघीजी सांगानेर एक आलौकिक परिचयमन्दिरजी की प्राचीनता – जिन मन्दिर में प्रवेष करते ही चैक में दीवारों पर उत्कीर्ण भित्तीचित्रों से भी हमें ज्ञात होता है कि यह आठवीं दशवीं शताब्दी का बना हुआ है । मन्दिर के द्वितीय चैक में पाषाण की तीन शिखरों की विशाल वेदी बनी हुई है जिसके पाषाण में कमल-पुष्प, बेला एवं तीर्थंकरों के सिर पर जलाभिषेक करते हुये हाथियों का शिल्प-सोष्ठव देखते ही बनता है । इसी चोक में चारों ओर चार फेरिया व तीन छोटे जिनालय है जिनमें अनेक प्रतिमाऐं विराजमान है । इन प्रमिमाओं पर अंकित लेख के अनुसार कोई प्रतिमा 2500 वर्ष प्राचीन, तो कोई प्रतिमा 1500 वर्ष प्राचीन है । प्रतिमाओं पर अंकित लेख इतिहास की धरोहर है । श्रद्धालुओं की श्रद्धा – वेदी के पृष्ठभाग में मूलनायक प्रतिमा श्री आदिनाथ भगवान की है । यह प्रतिमा काफी प्राचीन है । इस आलोकिक प्रतिमा का रहस्योद्घाटन करते हुये जैन आचार्यो ने एवं मुनियों ने बताया कि यह प्रतिमा साक्षात जिनेन्द्र भगवान की अनुभूति कराती है । इसकी शरण में आने से श्रृद्धालुओं को व्याधियों से मुक्ति मिलती है एवं इसके स्मरण से सदैव आत्मबल मिलता है । उनके अनुसार यह प्रतिमा प्रतिक्षण रूप परिवर्तित करती है और यह हमें प्रतिक्षण नई दिशा प्रदान करती है । यह चतुर्थकालीन महाअतिशयकारी प्रतिमा सांगानेर वाले बाबा के नाम से प्रसिद्ध है ।
मुनिश्री सुधासागरजी महाराज सांगानेर वाले बाबा के अतिशयों को इतिहास, षिलालेख एवं अपने ज्ञानचक्षु से अनूभूत कर बाबा के अतिशयों की महिमा बताई है, जबसे प्रतिदिन हजारों श्रद्धालु बाबा के दर्षनों से अपनी मनोकामनाऐं पूर्ण कर संकटों से मुक्ति पा रहें हैं । जो भी व्यक्ति पूजन, अभिषेक, आरती, दीप, छत्र इत्यादि चढाता है वह बाबा के अतिशयों से लाभान्वित होता होकर अपनी गृहस्थ, सांसारिक एवं परमार्थिक जीवन को मंगलमय बना लेता है। अर्थात सांगानेर वाले बाबा को संकटमोचन, शान्तिदाता, विघ्नहर, चतुर्थकालीन चमत्कारी बाबा आदि नामों से भी श्रद्धालु पुकारते है ।
इस मन्दिर की सबसे बडी विशेषता यह है कि यह मन्दिर सात मंजिला है तलघर के मध्य में यक्षदेव द्वारा रक्षित प्राचीन जिन चैत्यालय विराजमान है । इसकी विशेषता है कि जिस स्थान पर यह विराजमान है वहां मात्र बालयती तपस्वी दिगम्बर साधु ही अपनी साधना के बल पर प्रवेश कर सकते है । इस चैत्यालय को निकालते समय निकालने वाले साधक को अपनी संकल्प शक्ति व्यक्त करनी पडती है कि इसको इतने समय के लिये भूगर्भ से बाहर श्रावकों के दर्शनार्थ ले जा रहें हैं और अमुक समय पर लाकर विराजमान कर दिया जायेगा । संकल्प समय के अन्दर ही इस चैत्यालय को भूगर्भ में वापस ले जाना अनिवार्य होता है इसमें विलम्ब करने पर अनेक प्रकार के अशुभ संकेत देखने में आते है । यह इस मन्दिर की सबसे बडी अतिषयता है एवं इससे प्राचीनता स्पष्ट नजर आती है ।इन अलौकिक अतिशय युक्त प्रतिमाओं को भूगर्भ से जनता के दर्शनार्थ अपनी साधना सामथ्र्य के अनुसार प्रथम बार सन् 1933 में चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शान्तिसागर जी महाराज बाहर लाये थे ।
बुजुर्गो द्वारा रोचक संस्मरण इस प्रकार है कि आचार्य श्री 108 शान्तिसागर जी महाराज सन् 1933 में सांगानेर आये थे और इस मन्दिर में ठहरे हुये थे । रात को स्वपन में उनको इस आलौकिक भूगर्भ चैत्यालय के दर्षन हुये । प्रातः महाराजश्री ने मन्दिर के तहत सभी पंचों को एकत्रित किया और रात्रि स्वपन वाली घटना बतायी तथा जानकारी ली कि भूगर्भ चैत्यालय का रास्ता किधर से है । और फिर दरवाजे को खुलवाकर अन्दर चले गये । महाराजश्री दो दिन गुफा के अन्दर ही रहे । तत्पष्चात 64 प्रतिमायें, 88 छोटे यन्त्र एवं दो बडे यंत्रों के दर्षन किये तथा बाहर आकर सभी पंचों को इसकी जानकारी दी और मुखिया चार पंचों को दुबारा अपने साथ गुफा में ले गये । इसके बाद पूरा चैत्यालय दर्षनार्थ बाहर लेकर आये । अन्दर गुफा में जाने का रास्ता और भी है उसमें जाने के लिये सबको सख्त मना कर दिया तथा षिला पट्ट लगा कर उस पर लिख दिया कि -‘इससे आगे जाने की कोई कोषिष नही करें’ और भविष्य में चैत्यालय निकालने की पांच साल की अवधि निर्धारित कर दी और सभी पंचों को पांच वर्ष पूर्व नही निकालने की षपथ दिला दी । जो मन्दिर की उस साल की चालू बही में अंकित है । उनके पश्चात सन् 1971 में आचार्यश्री देशभूषण जी महाराज, सन् 1986 में आचार्य श्री विमलसागरजी महाराज सन् 1992 में गणधराचार्य श्री कुन्थुसागरजी महाराज एवं सन् 1994 व 1999 में मुनिपुंगव श्री सुधासागर जी महाराज निकाल कर बाहर लाये थे ।
20 जून से 24 जून 1999 को भूगर्भित जिनबिम्बों का अमृतसिद्धि दर्शन 1008 कलशों से महामस्तकाभिषेक एवं मन्दिरजी के उपर प्रथम बार अपनी सम्पूर्ण जीवन साधना के अर्जित तपोबल से मुनिश्री 108 सुधासागरजी महाराज ने भूगर्भ स्थित तीसरी मंजिल से आगे चैथी मंजिल से पहलीबार 32 जिनबिम्ब अतिरिक्त निकालकर लगभग 10 लाख जनता को दर्शन कराकर जीवन को धन्य किया । यक्षरक्षित भूगर्भ स्थित जिनबिम्बों को बाहर दर्षनार्थ निकालने के बाद मुनिश्री ने कहा कि ‘‘लोग भी जाने कहां कहां दुनिया के संकट दूर करने जातें हैं मैं कहता हॅूं कि सांगानेर की प्रतिमाओं में तो चमत्कार है ही साथ में सांगानेर के मन्दिर को नमस्कार करने में भी वह चमत्कार है जो सारी दुनियां में नही हो सकता क्योंकि इस मन्दिर में ऐसी वर्गणायें विद्यमान है’’ ।
मन्दिरजी के अतिशयता के बारे में किवदन्ती है कि आज से करीब 25-30 साल पहले रात्रि में ठीक 12 बजे के बाद देवलोक से देवादिगण दर्षन करने आते थे । मन्दिरजी के करीब रहने वाले जैन अजैन परिवार वाले बताते हैं कि वे इन देवों के आने की आहट सुनते थें, घोडों की टाप मन्दिर तक आती थी और फिर रूक जाती थी । बन्द मन्दिर के अन्दर झालर घण्टों के बजने की आवाज स्पष्ट सुनाई देती थी । बाद में वापस जाने की घोडों की टाप सुनाई देती थी । सुबह मन्दिर खोलने पर कई प्रतिमाओं पर पानी की बूंदे दिखाई देती थी जिससे स्पष्ट होता था कि देवलोक के इन्द्रों ने भगवान का अभिषेक किया हो । कभी कभी एक पीले रंग का सर्प जिस पर काले रंग के निषान थे और मुंह भी काले रंग का था मन्दिर में प्रतिमाओं के दर्षन करता हुआ पाया जाता था । पहली फेरी से भगवान के दायें हाथ की कांख से निकल कर दूसरी प्रतिमा पर चला जाता था । इस भांति सारे मन्दिर में सब प्रतिमाओं पर चलकर दर्षन करता हुआ आगे बढता जाता था । चैथी फेरी से निकल कर दरवाजे से बाहर क्षेत्रपालजी तक आता और अपना मुंह करीब एक डेढ फीट उपर उठा कर दर्षन करता और बाद में अदृष्य हो जाता था ।
पुराने समय में मन्दिर की सेवा रखवाली झाडू बुआरी करने वाले बोदू माली जिसके वंशज आज भी जीवित है, उसे प्रतिदिन सवेरे एक चांदी का पुराना सिक्का मिलता था । बाद में उसके पुत्र पूरण माली को भी कभी कभी मिलता था ।
जो यात्री आज भी सच्चे मन से बाबा को याद करतें हैं और उनके दर्षन करते हैं उनकी मन की शान्ती पूरी होती है इसका स्पष्ट उदाहरण यह है कि प्रतिदिन यात्रियों की संख्या बढ रही है और रविवार के दिन तो सुबह से लेकर शाम तक हजारेां यात्री यहां दर्षनार्थ आतें हैं ।